५२] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि जो सूत्र के अर्थ––पदसे भ्रष्ट हैं उसको मिथ्यादृष्टि जानना––
सुत्तत्थपयविणट्ठो मिच्छादिट्ठी हु सो मुणेयव्वो।
खेडे वि ण कायव्वं पाणिप्पत्तं१ सचेलस्स।। ७।।
खेडे वि ण कायव्वं पाणिप्पत्तं१ सचेलस्स।। ७।।
सूत्रार्थ पदविनष्ठः मिथ्याद्रष्टिः हि सः ज्ञातव्यः।
खेलेऽपि न कर्तव्यं पाणिपात्रं सचेलस्य।। ७।
अर्थः––जिसके सूत्र का अर्थ और पद विनष्ट है वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है, इसलिये जो
सचेल है, वस्त्र सहित है उसको ‘खेडे वि’ अर्थात् हास्य कुतूहल में भी पाणिपात्र अर्थात्
हस्तरूप पात्र से आहार नहीं करना।
भावार्थः––सूत्र में मुनि का रूप नग्न दिगम्बर कहा है। जिसके ऐसा सूत्रका अर्थ तथा
अक्षररूप पद विनष्ट है और आप वस्त्र धारण करके मुनि कहलाता है वह जिन आज्ञा से भ्रष्ट
हुआ प्रगट मिथ्यादृष्टि है, इसलिये वस्त्र सहित को हास्य–कुतूहलसे पाणिपात्र अर्थात् हस्तरूप
पात्र से आहारदान नहीं करना तथा इसप्रकार भी अर्थ होता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टि को
पाणिपात्र आहारदान लेना योग्य नहीं है, ऐसा भेष हास्य–कुतूहलसे भी धारण करना योग्य
नहीं है, वस्त्र सहित रहना और पाणिपात्र भोजन करना, इसप्रकार से तो क्रीड़ा मात्र भी नहीं
करना ।।७।।
हुआ प्रगट मिथ्यादृष्टि है, इसलिये वस्त्र सहित को हास्य–कुतूहलसे पाणिपात्र अर्थात् हस्तरूप
पात्र से आहारदान नहीं करना तथा इसप्रकार भी अर्थ होता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टि को
पाणिपात्र आहारदान लेना योग्य नहीं है, ऐसा भेष हास्य–कुतूहलसे भी धारण करना योग्य
नहीं है, वस्त्र सहित रहना और पाणिपात्र भोजन करना, इसप्रकार से तो क्रीड़ा मात्र भी नहीं
करना ।।७।।
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१ पाणिपात्रे पाठान्तर
सूत्रार्थपदथी भ्रष्ट छे ते जीव मिथ्यादृष्टि छे;
करपात्र भोजन रमतमांय न योग्य होय सचेलने। ७।