५८] [अष्टपाहुड
भावार्थः––इच्छाकारका प्रधान अर्थ आपको चाहना है, सो जिसके अपने स्वरूप की
रुचिरूप सम्यक्त्व नहीं है, उसको सब मुनि, श्रावककी आचरणरूप प्रवृत्ति मोक्षका कारण नहीं
है।।१५।।
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करके उपदेश करते हैंः––
एएण कारणेण य तं अप्पा सद्रहेह तिविहेण।
जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण।। १६।।
एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन।
येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन।। १६।।
अर्थः––पहिले कहा कि जो आत्मा को इष्ट नहीं करता है उसके सिद्धि नहीं है, इस
ही कारण से हे भव्य जीवों! तुम उस आत्मा की श्रद्धा करो, उसका श्रद्धान करो, मन–वचन–
कायसे स्वरूपमें रुचि करो, इस कारण से मोक्षको पाओ और जिससे मोक्ष पाते हैं उसको
प्रयत्न द्वारा सब प्राकरके उद्यम करके जानो। (भाव पाहुड गा॰ ८७ में भी यह बात है।)
भावार्थः––जिससे मोक्ष पाते हैं उसहकिो जानना, श्रद्धान करना यह प्रधान उपदेश है,
अन्य आडम्बरसे क्या प्रयोजन? इसप्रकार जानना।।१६।।
आगे कहते हैं कि जो जिनसूत्र को जानने वाले मुनि हैं उनका स्वरूप फिर दृढ़ करने
को कहते हैंः––
वालग्गकोडिमेत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं।
भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि्।। १७।।
बालाग्रकोटिमात्रं परिग्रहग्रहणं न भवति साधूनाम्।
भुंजीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एकस्थाने।। १७।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
आ कारणे ते आत्मानी त्रिविधे तमे श्रद्धा करो,
ते आत्मने जाणो प्रयत्ने, मुक्तिने जेथी वरो। १६।
रे! होय नहि बालाग्रनी अणीमात्र परिग्रह साधुने;
करपात्रमां परदत्त भोजन एक स्थान विषे करे। १७।