सूत्रपाहुड][५९
अर्थः––बाल के अग्रभाग की कोटि अर्थात् अणीमात्र भी परिग्रह का ग्रहण साधुके नहीं होता है। यहाँ आशंका है कि यदि प्ररिग्रह कुछ नहीं है तो आहार कैसे करते हैं? इसका समाधान करते हैं–आहार करते हैं तो पाणिमात्र (करपात्र) अपने हाथ में भोजन करतें हैं, वह भी अन्य का दिया हुआ प्रासुक अन्न मात्र लेते हैं, वह भी एक स्थान पर ही लेते हैं, बारंबार नहीं लेते और अन्य स्थान में नहीं लेते हैं। भावार्थः––जो मुनि आहार ही पर का दिया हुआ प्रासुक योग्य अन्नमात्र निर्दोष एकबार दिनमें अपने हाथमें लेते हैं तो अन्य परिग्रह किसलिये ग्रहण करें? अर्थात् नहीं ग्रहण करें, जिनसूत्र में इसप्रकार मुनि कहें हैं।।१७।। आगे कहते हैं कि अल्प परिग्रह ग्रहण करे उसमें दोष क्या है? उसको दोष दिखाते हैंः––
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम्।। १८।।
यदि लाति अल्पबहुकं ततः पुनः याति निगोदम्।। १८।।
अर्थः––मुनि यथाजात रूप हैं। जैसे, जन्मता बालक नग्नरूप होता है वैसे ही नग्नरूप
दिगम्बर मुद्राका धारक है, वह अपने हाथसे तिलके तुषमात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता; और
यदि कुछ थोड़ा बहुत लेवे ग्रहण करे तो वह मुनि ग्रहण करने से निगोद में जाता है।
भावार्थः––मुनि यथाजातरूप दिगम्बर निर्गंथको कहते हैं। वह इसप्रकार होकरके भी
मिथ्यात्वका फल निगोद ही है। कदाचित् कुछ तपश्चरणादिक करे तो उससे शुभ कर्म बाँधकर
स्वर्गादिक पावे, तो भी एकेन्द्रिय होकर संसार ही में भ्रमण करता है।