निषेध किया है और केवल संयमके निमित्तका तो सर्वथा निषेध नहीं है। शरीर तो आयु पर्यन्त
छोड़ने पर भी छूटता नहीं है, इसका तो ममत्व ही छूटता है, सो उसका निषेध किया ही है।
जब तक शरीर है तब तक आहार नहीं करें तो सामर्थ्य ही नहीं हो, तब संयम नहीं सधे,
इसलिये कुछ योग्य आहार विधिपूर्वक शरीर से रागरहित होते हुए लेकर के शरीर को खड़ा
रख कर संयम साधते हैं।
नहीं रखें तो जीवसहित भूमि आदिकी प्रतिलेखना किससे करें? पुस्तक ज्ञान का उपकरण है,
यदि नहीं रखें तो पठन–पाठन कैसे हो? इन उपकरणोंका रखना भी ममत्वपूर्वक नहीं है, इन
से राग भाव नहीं है। आहार–विहार–पठन–पाठनकी क्रिया युक्त जब तक तहे तब तक
केवलज्ञान भी उत्पन्न नहीं होता है, इन सब क्रियाओं को छोड़कर शरीरका भी सर्वथा ममत्व
छोड़ ध्यान अवस्था लेकर तिष्ठे , अपने स्वरूप में तीन हों तब तक परम निर्गरन्थ अवस्था
होती है, तब श्रेणी को प्राप्त हुए मुनिराजके केवलज्ञान उत्पन्न होता है, अन्य क्रिया सहित हो
तब तक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, इसप्रकार निर्गरन्थपना मोक्षमार्ग जिनसूत्रमें कहा है।
हैं उनमें लिखा होगा। फिर यहाँ श्वेताम्बर कहते हैं कि जो तुमने कहा वह वह तो उत्सर्ग
मार्ग है, अपवाद मार्ग में वस्त्रादिक उपकरण रखना कहा है, जैसे तुमने धर्मोपकरण कहे वैसे
ही वस्त्रादिक भी धर्मोपकरण हैं। जैसे क्षुधा की बाधा आहार से मिटा कर संयम साधते हैं, वैसे
ही शीत आदिकी बाधा वस्त्र आदि से मिटा कर संयम साधते हैं, इसमें विशेष क्या? इसको
कहते हैं कि इसमें तो बड़े दोष आते हैं। तथा कोई कहते हैं कि काम विकार उत्पन्न हो तब
स्त्री सेवन करे तो इसमें क्या विशेष? इसलिये इसप्रकार कहना युक्त नहीं है।