ज्ञानाभ्यास आदिके साधनसे ही मिट जाती है। अपवाद–मार्ग कहा वह तो जिसमें मुनिपद रहे
ऐसी क्रिया करना तो अपवाद–मार्ग है, परन्तु जिस परिग्रह से तथा जिस क्रिया से मुनिपद
भ्रष्ट होकर गृहस्थके समान हो जावे वह तो अपवाद–मार्ग नहीं है। दिगम्बर मुद्रा धारण करके
कमंडलु–पीछी सहित आहार–विहार–उपदेशादिक में प्रवर्ते वह अपवाद–मार्ग है और सब
प्रवृत्ति को छोड़कर ध्यानस्थ हो शुद्धोपयोग में लीन हो जाने को उत्सर्ग–मार्ग कहा है।
इसप्रकार मुनिपद अपने से सधता न जानकर किसलिये शिथिलाचारका पोषण करना? मुनि
पद की सामर्थ्य न हो तो श्रावकधर्मका ही पालन करना, परम्परा से इसी से सिद्धि हो
जावेगी। जिनसूत्र की यथार्थ श्रद्धा रखने से सिद्धि है इसके बिना अन्य क्रिया सब ही
संसारमार्ग है, मोक्षमार्ग नहीं है–इसप्रकार जानना।।१८।।
सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ णिरायारो।। १९।।
स गर्ह्यः जिनवचने परिग्रह रहितः निरागारः।। १९।।
अर्थः––जिसके मत में लिंग जो भेष उसके परिग्रहका अल्प तथा बहुत ग्रहण करना
कहा है वह मत तथा उसका श्रद्धावान पुरुष गर्हित है, निंदायोग्य है, क्योंकि जिनवचन में
परिग्रह ही निरागार है, निर्दोष मुनि है, इसप्रकार कहा है।
कहा है ।।१९।।