णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य।। २०।।
निर्ग्ररंथमोक्षमार्गः स भवति हि वन्दनीयः च।। २०।।
अर्थः––जो मुनि पंच महाव्रत युक्त हो और तीन गुप्ति संयुक्त हो वह संयत है,
संयमवान है और निर्गरन्थ मोक्षमार्ग है तथा वह ही प्रगट निश्चयसे वंदने योग्य है।
वंदने योग्य है। जो कुछ अल्प–बहुत परिग्रह रखे सो महाव्रती संयमी नहीं है, यह मोक्षमार्ग
नहीं है और गृहस्थके समान भी नहीं है।।२०।।
भिक्खं भमेइ पत्ते समिदी भासेण मोणेण।। २१।।
भिक्षां भ्रमति पात्रे समिति भाषया मौनेन।। २१।।
अर्थः––द्वितीय लिंग अर्थात् दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावक जो गृहस्थ नहीं है इसप्रकार
उत्कृष्ट श्रावकका कहा है वह उत्कृष्ट श्रावक ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक है, वह भ्रमण करके
भिक्षा द्वारा भोजन करे और पत्ते अर्थात् पात्रमें भोजन करे तथा हाथमें करे और समिति रूप
प्रवर्तता हुआ भाषासमिति रूप बोले अथवा मौन से रहे।
निर्ग्रन्थ मुक्तिमार्ग छे ते; ते खरेखर वंद्य छे। २०।