Ashtprabhrut (Hindi).

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७२] [अष्टपाहुड
एवं चैवज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शंकादीन्।
परिहर सम्यक्त्वमलान् जिनभणितान् त्रिविधयोगेन।। ६।।

अर्थः––ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्रको जानकर मिथ्यात्व कर्मके उदयसे
हुए शंकादिक दोष सम्यक्त्वको अशुद्ध करने वाले मल हैं ऐसा जिनदेव ने कहा है, इनको मन,
वचन, कायके तीनों योगों से छोड़ना।

भावार्थः––सम्यक्त्वाचरण चारित्र, शंकादि दोष सम्यक्त्व के मल हैं, उनको त्यागने पर
शुद्ध होता है, इसलिये इनको त्याग करने का उपदेश जिनदेव ने किया है। वे दोष क्या हैं वह
कहते हैं––जिनवचनमें वस्तु का स्वरूप कहा उसमें संशय करना शंका दोष है; इसके होने
पर सप्तभय के निमित्त से स्वरूप से चिग जाय वह भी शंका है। भोगों की अभिलाषा कांक्षा
दोष है, इसके होने पर भोगोंके लिये स्वरूप से भ्रष्ट हो जाता है। वस्तुके स्वरूप अर्थात् धर्म
में ग्लानि करना जुगुप्सा दोष है, इसके होने पर धर्मात्मा पुरुषोंके पूर्वकर्म के उदय से बाह्य
मलिनता देखकर मत से चिग जाना होता है।
देव–गुरु–धर्म तथा लौकिक कार्यों में मूढ़ता अर्थात् यथार्थ स्वरूपको न जानना सो
मूढ़दृष्टि दोष है, इसके होने पर अन्य लौकिक जनोंसे माने हुए सरागी देव, हिंसाधर्म और
सग्रन्थ गुरु तथा लोगोंके बिना विचार किये ही मानी हुई अनेक क्रिया विशेषोंसे विभवादिककी
प्राप्तिके लिये प्रवृत्ति करने से यथार्थ मत से भ्रष्ट हो जाता है। धर्मात्मा पुरुषों में कर्म के उदय
से कुछ दोष उत्पन्न हआ देखकर उनकी अवज्ञा करना सो अनुपगूहन दोष है, इसके होने
पर धर्मसे छूट जाना होता है। धर्मात्मा पुरुषोंको कर्मके उदयके वश से धर्मसे चिगते देखकर
उनकी स्थिरता न करना सो अस्थितिकरण दोष है, इसके होने पर ज्ञात होता है कि इसको
धर्मसे अनुराग नहीं है और अनुरागका न होना सम्यक्त्व में दोष है।
धर्मात्मा पुरुषोंसे विशेष प्रीती न करना अवात्सल्य दोष है, इसके होने पर सम्यक्त्वका
अभाव प्रगट सूचित होता है। धर्मका महात्म्य शक्ति के अनुसार प्रगट न करना अप्रभावना दोष
है, इसके होने पर ज्ञात होता है कि इसके धर्मके महात्म्यकी श्रद्धा प्रगट नहीं हुई है।–––
इसप्रकार यह आठ दोष सम्यक्त्वके मिथ्यात्वके उदय से
(उदयके वश में होने से) होते हैं,
जहाँ ये तीव्र हों वहाँ तो मिथ्यात्व प्रकृति का उदय बताते हैं, सम्यक्त्वका अभाव बताते हैं और
जहाँ कुछ मंद अतिचाररूप हों तो सम्यक्त्व –प्रकृति नामक मिथ्यात्वकी प्रकृति के उदय से हों
वे अतिचार कहलाते हैं, वहाँ क्षयोपशमिक सम्यक्त्वका सद्भाव होता है; परमार्थसे विचार करें
तो अतिचार त्यागने ही योग्य हैं।