विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि।। ५।।
द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि।। ५।।
अर्थः––प्रथम तो सम्यक्त्वका आचरणस्वरूप चारित्र है, वह जिनदेवके ज्ञान–दर्शन–
श्रद्धानसे किया हुआ शुद्ध है। दूसरा संयमका आचरणस्वरूप चारित्र है, वह भी जिनदेवके
ज्ञानसे दिखाया हुआ शुद्ध है।
अतिचार मल दोष कहे, उनका परिहार करके शुद्ध करना तथा उसके निःशंकितादि गुणोंका
प्रगट होना वह सम्यक्त्वचरण चारित्र है और जो महाव्रत आदि अंगीकार करके सर्वज्ञके
आगममें कहा वैसे संयमका आचरण करना, और उसके अतिचार आदि दोषोंको दूर करना,
संयमचरण चारित्र है, इसप्रकार संक्षेप से स्वरूप कहा।।५।।
परिहर सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण।। ६।।
बीजुं चरित संयमचरण, जिनज्ञानभाषित तेय छे। ५।
इम जाणीने छोडो त्रिविध योगे सकल शंकादिने,