चारित्रपाहुड][७१
आगे दो प्रकार का कहा सो कहते हैंः––
जिणणाणदिट्ठिसुद्धं पढमं सम्मत्त चरण चारित्तं।
विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि।। ५।।
विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि।। ५।।
जिनज्ञानद्रष्टिशुद्धं प्रथमं सम्यक्त्व चरण चारित्रम्।
द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि।। ५।।
द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि।। ५।।
अर्थः––प्रथम तो सम्यक्त्वका आचरणस्वरूप चारित्र है, वह जिनदेवके ज्ञान–दर्शन–
श्रद्धानसे किया हुआ शुद्ध है। दूसरा संयमका आचरणस्वरूप चारित्र है, वह भी जिनदेवके
ज्ञानसे दिखाया हुआ शुद्ध है।
भावार्थः––चारित्र को दो प्रकार का कहा है। प्रथम तो सम्यक्त्वका आचरण कहा वह
जो आगम में तत्त्वार्थका स्वरूप कहा उसको यथार्थ जानकर श्रद्धान करना और उसके शंकादि
अतिचार मल दोष कहे, उनका परिहार करके शुद्ध करना तथा उसके निःशंकितादि गुणोंका
प्रगट होना वह सम्यक्त्वचरण चारित्र है और जो महाव्रत आदि अंगीकार करके सर्वज्ञके
आगममें कहा वैसे संयमका आचरण करना, और उसके अतिचार आदि दोषोंको दूर करना,
संयमचरण चारित्र है, इसप्रकार संक्षेप से स्वरूप कहा।।५।।
आगे सम्यक्त्वचरण चारित्रके मल दोषोंका परिहार करके आचरण करना कहते हैंः––
अतिचार मल दोष कहे, उनका परिहार करके शुद्ध करना तथा उसके निःशंकितादि गुणोंका
प्रगट होना वह सम्यक्त्वचरण चारित्र है और जो महाव्रत आदि अंगीकार करके सर्वज्ञके
आगममें कहा वैसे संयमका आचरण करना, और उसके अतिचार आदि दोषोंको दूर करना,
संयमचरण चारित्र है, इसप्रकार संक्षेप से स्वरूप कहा।।५।।
आगे सम्यक्त्वचरण चारित्रके मल दोषोंका परिहार करके आचरण करना कहते हैंः––
एवं चिय णाऊण य सव्वे मिच्छत्तदोस संकाइ।
परिहर सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण।। ६।।
परिहर सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण।। ६।।
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सम्यक्त्वचरण छे प्रथम, जिनज्ञानदर्शनशुद्ध जे;
बीजुं चरित संयमचरण, जिनज्ञानभाषित तेय छे। ५।
इम जाणीने छोडो त्रिविध योगे सकल शंकादिने,
बीजुं चरित संयमचरण, जिनज्ञानभाषित तेय छे। ५।
इम जाणीने छोडो त्रिविध योगे सकल शंकादिने,
मिथ्यात्वमय दोषो तथा सम्यक्त्वमल जिन–उक्तने। ६।