णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं।। ३।।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रम्।। ३।।
अर्थः––जो जानता है वह ज्ञान है, जो देखता है वह दर्शन है ऐसे कहा है। ज्ञान और
दर्शन के समायोग से चारित्र होता है।
तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं।। ४।।
त्रयाणामपि शोधनार्थं जिनभणितं द्विविधं चारित्रं।। ४।।
अर्थः––ये ज्ञान आदिक तीन भाव कहे, ये अक्षय और अनन्त जीवके भाव हैं, इनको
शोधने के लिये जिनदेव ने दो प्रकार का चारित्र कहा है।
लोकको जाननेवाला ज्ञान है, इसप्रकार ही दर्शन है, इसप्रकार ही चारित्र है तथापि घातिकर्म
के निमित्त से अशुद्ध हैं, जो ज्ञान–दर्शन–चारित्ररूप हैं इसलिये श्री जिनदेव ने इनको शुद्ध
करने के लिये इनका चारित्र [आचरण करना] दो प्रकार का कहा है ।।४।।
ने ज्ञान–दर्शनना समायोगे सुचारित होय छे। ३।
आ भाव त्रण आत्मा तणा अविनाश तेम अमेय छे;