७०] [अष्टपाहुड
जं जाणइ तं णाणं जं पेच्छइ तं च दंसणं भणियं।
णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं।। ३।।
णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं।। ३।।
यज्जानाति तत् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं भणितम्।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रम्।। ३।।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रम्।। ३।।
अर्थः––जो जानता है वह ज्ञान है, जो देखता है वह दर्शन है ऐसे कहा है। ज्ञान और
दर्शन के समायोग से चारित्र होता है।
भावार्थः––जाने वह तो ज्ञान और देखे, श्रद्धान हो वह दर्शन तथा दोनों एक रूप
होकर स्थिर होना चारित्र है।।३।।
आगे कहते हैं कि जो तीन भाव जीवके हैं उनकी शुद्धता के लिये चारित्र दो प्रकार का
आगे कहते हैं कि जो तीन भाव जीवके हैं उनकी शुद्धता के लिये चारित्र दो प्रकार का
कहा हैः––
एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया।
तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं।। ४।।
तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं।। ४।।
एते त्रयोऽपि भावाः भवंति जीवस्य अक्षयाः अमेयाः।
त्रयाणामपि शोधनार्थं जिनभणितं द्विविधं चारित्रं।। ४।।
त्रयाणामपि शोधनार्थं जिनभणितं द्विविधं चारित्रं।। ४।।
अर्थः––ये ज्ञान आदिक तीन भाव कहे, ये अक्षय और अनन्त जीवके भाव हैं, इनको
शोधने के लिये जिनदेव ने दो प्रकार का चारित्र कहा है।
भावार्थः––जानना, देखना और आचरण करना ये तीन भाव जीवके अक्षयानंत हैं,
अक्षय अर्थात् जिसका नाश नहीं है, अमेय अर्थात् अनंत जिसका पार नहीं है, सब लोका
लोकको जाननेवाला ज्ञान है, इसप्रकार ही दर्शन है, इसप्रकार ही चारित्र है तथापि घातिकर्म
के निमित्त से अशुद्ध हैं, जो ज्ञान–दर्शन–चारित्ररूप हैं इसलिये श्री जिनदेव ने इनको शुद्ध
करने के लिये इनका चारित्र [आचरण करना] दो प्रकार का कहा है ।।४।।
लोकको जाननेवाला ज्ञान है, इसप्रकार ही दर्शन है, इसप्रकार ही चारित्र है तथापि घातिकर्म
के निमित्त से अशुद्ध हैं, जो ज्ञान–दर्शन–चारित्ररूप हैं इसलिये श्री जिनदेव ने इनको शुद्ध
करने के लिये इनका चारित्र [आचरण करना] दो प्रकार का कहा है ।।४।।
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जे जाणतुं ते ज्ञान, देखे तेह दर्शन उक्त छे;
ने ज्ञान–दर्शनना समायोगे सुचारित होय छे। ३।
आ भाव त्रण आत्मा तणा अविनाश तेम अमेय छे;
ने ज्ञान–दर्शनना समायोगे सुचारित होय छे। ३।
आ भाव त्रण आत्मा तणा अविनाश तेम अमेय छे;
ए भावत्रयनी शुद्धि अर्थे द्विविध चरण जिनोक्त छे। ४।