चारित्रपाहुड][६९
उत्कृष्ट पूज्य हो उसे परमेष्ठी कहते हैं अथवा परम जो उत्कृष्ट पद में तिष्ठे वह परमेष्ठी है।
इसप्रकार इन्द्रादिक से पूज्य अरहन्त परमेष्ठी हैं।
सर्वज्ञ हैं, सब लोकालोक स्वरूप चराचर पदार्थों को प्रत्यक्ष जाने वह सर्वज्ञ है।
सर्वदर्शी अर्थात् सब पदार्थोंको देखने वाले हैं। निर्मोह हैं, मोहनीय नामके कर्म की प्रधान
प्रकृति मिथ्यात्व है उससे रहित हैं। वीतराग हैं, जिनके विशेषरूप से राग दूर हो गया हो सो
वीतराग हैं, उनके चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे (–उदयवश) हो ऐसा रागद्वेष भी नहीं है।
त्रिजगद्धंद्य हैं, तीन जगत के प्राणी तथा उनके स्वामी इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्तियोंसे वंदने योग्य
हैं। इसप्रकारसे अरहन्त पदको विशेष्य करके और अन्य पदोंको विशेषण करने पर इसप्रकार
भी अर्थ होता है, परन्तु वहाँ अरहन्त भव्य जीवों से पूज्य हैं इसप्रकार विशेषण होता है।
चारित्र कैसा है? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये तीन आत्माके परिणाम हैं,
उनके शुद्धताका कारण है, चारित्र अंगीकार करने पर सम्यग्दर्शनादि परिणाम निर्दोष होता है।
चारित्र मोक्ष के आराधन का कारण है, –इसप्रकार चारित्र पाहुड़ (प्राभृत) ग्रंथको कहूँगा,
इसप्रकार आचार्य ने मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा की है।।१–२।।
आगे सम्यग्दर्शनादि तीन भावों का स्वरूप कहते हैंः––
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सर्वज्ञ छे, परमेष्ठी छे, निर्मोह ने वीतराग छे,
ते त्रिजगवंदित, भव्यपूजित अर्हतोने वंदीने; १।
भाखीश हुं चारित्रप्राभृत मोक्षने आराधवा,
जे हेतु छे सुज्ञान–दृग–चारित्र केरी शुद्धिमां। २।