है, प्रतिकूल हो ही नहीं सकता । स्वतःसिद्ध वस्तु
स्वयं अपनेको दुःखरूप हो ही नहीं सकती ।।२३५।।
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मलिनता टिकती नहीं है और मलिनता रुचती नहीं
है; इसलिये मलिनता वस्तुका स्वभाव हो ही नहीं
सकता ।।२३६।।
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हे आत्मा ! यदि तुझे विभावसे छूटकर मुक्त दशा
प्राप्त करनी हो तो चैतन्यके अभेद स्वरूपको ग्रहण
कर । द्रव्यद्रष्टि सर्व प्रकारकी पर्यायको दूर रखकर
एक निरपेक्ष सामान्य स्वरूपको ग्रहण करती है;
द्रव्यद्रष्टिके विषयमें गुणभेद भी नहीं होते । ऐसी शुद्ध
द्रष्टि प्रगट कर ।
ऐसी द्रष्टिके साथ वर्तता हुआ ज्ञान वस्तुमें
विद्यमान गुणों तथा पर्यायोंको, अभेद तथा भेदको,
विविध प्रकारसे जानता है । लक्षण, प्रयोजन इत्यादि
अपेक्षासे गुणोंमें भिन्नता है और वस्तु-अपेक्षासे अभेद
है ऐसा ज्ञान जानता है । ‘इस आत्माकी यह पर्याय
प्रगट हुई, यह सम्यग्दर्शन हुआ, यह मुनिदशा हुई,
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बहिनश्रीके वचनामृत