Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 236-237.

< Previous Page   Next Page >


Page 94 of 212
PDF/HTML Page 109 of 227

 

९४ ]

बहिनश्रीके वचनामृत

है, प्रतिकूल हो ही नहीं सकता । स्वतःसिद्ध वस्तु स्वयं अपनेको दुःखरूप हो ही नहीं सकती ।।२३५।।

मलिनता टिकती नहीं है और मलिनता रुचती नहीं है; इसलिये मलिनता वस्तुका स्वभाव हो ही नहीं सकता ।।२३६।।

हे आत्मा ! यदि तुझे विभावसे छूटकर मुक्त दशा प्राप्त करनी हो तो चैतन्यके अभेद स्वरूपको ग्रहण कर । द्रव्यद्रष्टि सर्व प्रकारकी पर्यायको दूर रखकर एक निरपेक्ष सामान्य स्वरूपको ग्रहण करती है; द्रव्यद्रष्टिके विषयमें गुणभेद भी नहीं होते । ऐसी शुद्ध द्रष्टि प्रगट कर ।

ऐसी द्रष्टिके साथ वर्तता हुआ ज्ञान वस्तुमें विद्यमान गुणों तथा पर्यायोंको, अभेद तथा भेदको, विविध प्रकारसे जानता है । लक्षण, प्रयोजन इत्यादि अपेक्षासे गुणोंमें भिन्नता है और वस्तु-अपेक्षासे अभेद है ऐसा ज्ञान जानता है । ‘इस आत्माकी यह पर्याय प्रगट हुई, यह सम्यग्दर्शन हुआ, यह मुनिदशा हुई,