Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 233-235.

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अंदर चैतन्यके नन्दनवनमें उसे सब कुछ मिल गया;
अब बाहर क्यों जाये? ग्रहण करने योग्य आत्माको
ग्रहण कर लिया, छोड़ने योग्य सब छूट गया; अब
किसलिये बाहर जाये ? २३२।।
अंदरसे ज्ञान एवं आनन्द असाधारणरूपसे पूर्ण
प्रगट हुए उसे अब बाहरसे क्या लेना बाकी रहा ?
निर्विकल्प हुए सो हुए, बाहर आते ही नहीं ।।२३३।।
मुझे अभी बहुत करना बाकी हैऐसा
माननेवालेको ही आगे बढ़नेका अवकाश रहता है ।
अनंत कालमें ‘मुझे आत्माका कल्याण करना है’ ऐसे
परिणाम जीवने अनेकों बार किये, परन्तु विविध शुभ
भाव करके उनमें सर्वस्व मानकर वहाँ संतुष्ट हो गया ।
कल्याण करनेकी सच्ची विधि नहीं जानी ।।२३४।।
स्वतःसिद्ध वस्तुका स्वभाव वस्तुसे प्रतिकूल क्यों
होगा ? वस्तुका स्वभाव तो वस्तुके अनुकूल ही होता
बहिनश्रीके वचनामृत
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