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यह तो स्वरूपमें झूलते हुए मुनियोंको
(आचार्यदेवकी) सीख है । निश्चय-व्यवहारकी संधि
ही ऐसी है । इस प्रकार अपनी भूमिकानुसार सबको
समझ लेना है ।।२२९।।
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आत्मा तो आश्चर्यकारी चैतन्यमूर्ति ! प्रथम उसे
चारों ओरसे पहिचानकर, पश्चात् नय-प्रमाणादिके पक्ष
छोड़कर अंतरमें स्थिर हो जाना । तब अंतरसे ही
मुक्त स्वरूप प्रगट होगा । स्वरूपमें स्थिर हुए ज्ञानी
ही साक्षात् अतीन्द्रिय आनन्दामृतका अनुभव करते
हैं — ‘त एव साक्षात् अमृतं पिबन्ति’ ।।२३०।।
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आत्माके गुण गाते-गाते गुणी हो गया — भगवान
हो गया; असंख्य प्रदेशोंमें अनंत गुणरत्नोंके कमरे
सब खुल गये ।।२३१।।
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ज्ञाताका ध्यान करते-करते आत्मा ज्ञानमय हो
गया, ध्यानमय हो गया — एकाग्रतामय हो गया ।
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बहिनश्रीके वचनामृत