आत्माके अस्तित्वको पहिचानकर स्वरूपमें स्थिर
हो जा, बस !....तेरा अस्तित्व आश्चर्यकारी अनंत
गुणपर्यायसे भरा है; उसका सम्पूर्ण स्वरूप भगवानकी
वाणीमें भी पूरा नहीं आ सकता । उसका अनुभव
करके उसमें स्थिर हो जा ।।२२८।।
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मुनिको संयम, नियम और तप — सबमें आत्मा
समीप होता है । अहा ! तू तो आत्माकी साधना
करने निकला है.....वहाँ यह लौकिक जनोंके
परिचयका रस क्यों ?
तुझे शुद्धि बढ़ाना हो, दुःखसे छूटनेकी भावना
हो, तो अधिक गुणवाले या समान गुणवाले आत्माके
संगमें रहना ।
लौकिक संग तेरा पुरुषार्थ मंद होनेका कारण
होगा । विशेष गुणीका संग तेरे चैतन्यतत्त्वको
निहारनेकी परिणतिमें विशेष वृद्धिका कारण होगा ।
अचानक आ पड़े असत्संगमें तो स्वयं पुरुषार्थ
रखकर अलग रहे, परन्तु स्वयं रसपूर्वक यदि असत्संग
करेगा तो अपनी परिणति मन्द पड़ जायगी ।
बहिनश्रीके वचनामृत
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