और आत्मा — ऐसा करते-करते, अंतरात्मभावरूप
परिणमते-परिणमते, परमात्मा हो जाता है ।।२२४।।
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अहा ! अमोघ — रामबाण समान — गुरुवचन ! यदि
जीव तैयार हो तो विभाव टूट जाता है, स्वभाव प्रगट
हो जाता है । अवसर चूकने जैसा नहीं है ।।२२५।।
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अपना अगाध गंभीर ज्ञायकस्वभाव पूर्ण रीतिसे
देखने पर समस्त लोकालोक भूत-भविष्यकी पर्यायों
सहित समयमात्रमें ज्ञात हो जाता है । अधिक
जाननेकी आकांक्षासे बस होओ, स्वरूपनिश्चल ही
रहना योग्य है ।।२२६।।
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शुद्धनयके विषयभूत आत्माकी स्वानुभूति सुखरूप
है । आत्मा स्वयमेव मंगलरूप है, आनन्दरूप है;
इसलिये आत्माकी अनुभूति भी मंगलरूप एवं
आनन्दरूप है ।।२२७।।
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बहिनश्रीके वचनामृत