भावके कर्तृत्वमें भी समस्त लोकका कर्तृत्व समाया
हुआ है ।।२२०।।
✽
सर्वस्वरूपसे उपादेय मात्र शुद्धोपयोग है ।
अंतर्मुहूर्तको नहीं किन्तु शाश्वत अंतरमें रह जाना
वही निज स्वभाव है, वही कर्तव्य है ।।२२१।।
✽
मुनि बारम्बार आत्माके उपयोगकी आत्मामें ही
प्रतिष्ठा करते हैं । उनकी दशा निराली, परके
प्रतिबंधसे रहित, केवल ज्ञायकमें प्रतिबद्ध, मात्र
निजगुणोंमें ही रमणशील, निरालम्बी होती है ।
मुनिराज मोक्षपंथमें प्रयाण आरम्भ किया उसे पूर्ण
करते हैं ।।२२२।।
✽
शुद्धात्मामें स्थिर होना वही कार्य है, वही सर्वस्व
है । स्थिर हो जाना ही सर्वस्व है, शुभ भाव आये
परन्तु वह सर्वस्व नहीं है ।।२२३।।
✽
अंतरात्मा तो दिन और रात अंतरंगमें आत्मा, आत्मा
बहिनश्रीके वचनामृत
[ ८९