बहिनश्रीके वचनामृत
भावके कर्तृत्वमें भी समस्त लोकका कर्तृत्व समाया हुआ है ।।२२०।।
सर्वस्वरूपसे उपादेय मात्र शुद्धोपयोग है । अंतर्मुहूर्तको नहीं किन्तु शाश्वत अंतरमें रह जाना वही निज स्वभाव है, वही कर्तव्य है ।।२२१।।
मुनि बारम्बार आत्माके उपयोगकी आत्मामें ही प्रतिष्ठा करते हैं । उनकी दशा निराली, परके प्रतिबंधसे रहित, केवल ज्ञायकमें प्रतिबद्ध, मात्र निजगुणोंमें ही रमणशील, निरालम्बी होती है । मुनिराज मोक्षपंथमें प्रयाण आरम्भ किया उसे पूर्ण करते हैं ।।२२२।।
शुद्धात्मामें स्थिर होना वही कार्य है, वही सर्वस्व है । स्थिर हो जाना ही सर्वस्व है, शुभ भाव आये परन्तु वह सर्वस्व नहीं है ।।२२३।।
अंतरात्मा तो दिन और रात अंतरंगमें आत्मा, आत्मा