हुआ अर्थात् अनुभवमें आया !’ ऐसा ज्ञान जानता
है, परन्तु द्रष्टि तो शाश्वत स्तंभ पर — द्रव्यस्वभाव
पर — जमी सो जमी ही रहती है ।।२१७।।
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कोई एकान्तमें निवास करनेवाला — एकान्त-
प्रिय — मनुष्य हो, उसे जबरन् बाह्य कार्यमें लगना
पड़े तो वह ऊपरी द्रष्टिसे लगता हुआ दिखता अवश्य
है, परन्तु कौन जानता है कि वह बाह्यमें आया है
या नहीं !! अथवा कोई अति दुर्बल मनुष्य हो और
उसके सिर पर कोई कार्यका बोझ रख दे तो उसे
कितना कठिन लगता है ? उसी प्रकार ज्ञानीको
ज्ञानधारा वर्तनेके कारण बाह्य कार्योंमें लगना बोझरूप
लगता है ।।२१८।।
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चाहे जैसे कठिन समयमें अपने ज्ञान-ध्यानका
समय निकाल लेना चाहिये । यह अमूल्य जीवन चला
जा रहा है । इसे व्यर्थ नहीं गँवाना ।।२१९।।
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ज्ञायकपरिणतिका द्रढ़ अभ्यास करो । शुभ
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बहिनश्रीके वचनामृत