Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 239-241.

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शुभका व्यवहार भी असार है, उसमें रुकने जैसा
नहीं है । कोई मनुष्य नगरका ध्येय बनाकर चलने
लगे तो बीच-बीचमें ग्राम, खेत, वृक्षादि सब आते
हैं, परन्तु वह सब छोड़ता जाता है; उसी प्रकार
साधकको यह शुभादिका व्यवहार बीचमें आता है
परन्तु साध्य तो पूर्ण शुद्धात्मा ही है । इसलिये वह
व्यवहारको छोड़ता हुआ पूर्ण शुद्धात्मस्वरूपमें ही
पहुँच जाता है ।।२३९।।
अरे जीव ! अनन्त-अनन्त काल बीत गया, तूने
परका तो कभी कुछ किया ही नहीं; अंतरमें
शुभाशुभ विकल्प करके जन्म-मरण किये हैं । अब
अनंत गुणोंका पिण्ड ऐसा जो निज शुद्धात्मा उसे
बराबर समझकर, उसीमें तीक्ष्ण द्रष्टि करके, प्रयाण
कर; उसीका श्रद्धान, उसकी अनुभूति, उसीमें
विश्राम कर ।।२४०।।
ओहो ! यह तो भगवान आत्मा ! सर्वांग
सहजानन्दकी मूर्ति ! जहाँसे देखो वहाँ आनन्द,
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बहिनश्रीके वचनामृत