आनन्द और आनन्द । जैसे मिश्रीमें सर्वांग मिठास
वैसे ही आत्मामें सर्वांग आनन्द ।।२४१।।
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चैतन्यदेवकी ओट ले, उसकी शरणमें जा; तेरे
सब कर्म टूटकर नष्ट हो जायँगे । चक्रवर्ती मार्गसे
निकले तो अपराधी लोग काँप उठते हैं, फि र यह तो
तीन लोकका बादशाह — चैतन्यचक्रवर्ती ! उसके समक्ष
जड़कर्म खड़े ही कैसे रह सकते हैं ? २४२।।
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ज्ञायक आत्मा नित्य एवं अभेद है; द्रष्टिके
विषयभूत ऐसे उसके स्वरूपमें अनित्य शुद्धाशुद्ध
पर्यायें या गुणभेद कुछ हैं ही नहीं । प्रयोजनकी
सिद्धिके लिये यही परमार्थ-आत्मा है । उसीके
आश्रयसे धर्म प्रगट होता है ।।२४३।।
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ओहो ! आत्मा तो अनन्त विभूतियोंसे भरपूर,
अनंत गुणोंकी राशि, अनंत गुणोंका विशाल पर्वत है !
चारों ओर गुण ही भरे हैं । अवगुण एक भी नहीं
बहिनश्रीके वचनामृत
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ब. व. ७