Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 245-247.

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बहिनश्रीके वचनामृत

है । ओहो ! यह मैं ? ऐसे आत्माके दर्शनके लिये जीवने कभी सच्चा कौतूहल ही नहीं किया ।।२४४।।

‘मैं मुक्त ही हूँ । मुझे कुछ नहीं चाहिये । मैं तो परिपूर्ण द्रव्यको पकड़कर बैठा हूँ ।’इस प्रकार जहाँ अंतरमें निर्णय करता है, वहाँ अनंत विभूति अंशतः प्रगट हो जाती है ।।२४५।।

आयुधशालामें चक्ररत्न प्रगट हुआ हो, फि र चक्रवर्ती आरामसे बैठा नहीं रहता, छह खण्डको साधने जाता है; उसी प्रकार यह चैतन्यचक्रवर्ती जागृत हुआ, सम्यग्दर्शनरूपी चक्ररत्न प्राप्त हुआ, अब तो अप्रमत्त भावसे केवलज्ञान ही लेगा ।।२४६।।

आत्मसाक्षात्कार ही अपूर्व दर्शन है । अनंत कालमें न हुआ हो ऐसा, चैतन्यतत्त्वमें जाकर जो दिव्य दर्शन हुआ, वही अलौकिक दर्शन है । सिद्धदशा तककी सर्व लब्धियाँ शुद्धात्मानुभूतिमें