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बहिनश्रीके वचनामृत
किया, परन्तु एक ज्ञानस्वरूप, सुखस्वरूप, अनंतगुणमय ऐसे आत्माको कभी पहिचाना नहीं, उसे पहिचान । बस, वही एक करना बाकी रह जाता है ।।२५८।।
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किसी प्रकारकी प्रवृत्तिमें खड़ा रहना वह आत्माका स्वभाव नहीं है । एक आत्मामें ही रहना वह हितकारी, कल्याणकारी और सर्वस्व है ।।२५९।।
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शुद्धात्माको जाने बिना भले ही क्रियाके ढेर लगा दे, परन्तु उससे आत्मा नहीं जाना जा सकता; ज्ञानसे ही आत्मा जाना जा सकता है ।।२६०।।
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द्रष्टि पूर्ण आत्मा पर रखकर तू आगे बढ़ तो सिद्ध भगवान जैसी दशा हो जायगी । यदि स्वभावमें अधूरापन मानेगा तो पूर्णताको कभी प्राप्त नहीं कर सकेगा । इसलिये तू अधूरा नहीं, पूर्ण है — ऐसा मान ।।२६१।।
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