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जागृतस्वरूप ऐसे आत्माको पहिचाने तो पर्यायमें भी जागृति प्रगट हो । आत्मा जागती ज्योति है, उसे जान ।।२६५।।
यदि तुझे जन्म-मरणका नाश करके आत्माका कल्याण करना हो तो इस चैतन्यभूमिमें खड़ा रहकर तू पुरुषार्थ कर; तेरे जन्म-मरणका नाश हो जायगा । आचार्यदेव करुणापूर्वक कहते हैं : — तू मुक्त स्वरूप आत्मामें निस्पृहतासे खड़ा रह । मोक्षकी स्पृहा और चिन्तासे भी मुक्त हो । तू स्वयमेव सुखरूप हो जायगा । तेरे सुखके लिये हम यह मार्ग बतला रहे हैं। बाहरके व्यर्थ प्रयत्नसे सुख नहीं मिलेगा ।।२६६।।
ज्ञानी द्रव्यके आलम्बनके बलसे, ज्ञानमें निश्चय- व्यवहारकी मैत्रीपूर्वक, आगे बढ़ता जाता है और चैतन्य स्वयं अपनी अद्भुततामें समा जाता है ।।२६७।।
बाह्य रोग आत्माकी साधक दशाको नहीं रोक