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पंचम काल है इसलिये बाहर फे रफार होता है, परन्तु जिसे आत्माका कल्याण करना है उसे काल बाधक नहीं होता ।।२७५।।
‘शुभाशुभ भावसे भिन्न, मैं ज्ञायक हूँ’ यह प्रत्येक प्रसंगमें याद रखना । भेदज्ञानका अभ्यास करना ही मनुष्यजीवनकी सार्थकता है ।।२७६।।
परसे विरक्त ता नहीं है, विभावकी तुच्छता नहीं लगती, अंतरमें इतनी उत्कंठा नहीं है; फि र कार्य कहाँसे हो ? अंतरमें उत्कंठा जागृत हो तो कार्य हुए बिना रहता ही नहीं । स्वयं आलसी हो गया है । ‘करूँगा, करूँगा’ कहता है परन्तु करता नहीं है । कोई तो ऐसे आलसी होते हैं कि सोते हों तो बैठते नहीं हैं, और बैठे हों तो खड़े होनेमें आलस्य करते हैं; उसी प्रकार उत्कंठारहित आलसी जीव ‘कल करूँगा, कल करूँगा’ ऐसे मन्दरूप वर्तते हैं; वहाँ कलकी आज नहीं होती और जीवन समाप्त हो जाता है ।।२७७।।