बहिनश्रीके वचनामृत
जैसे किसीको ग्रीष्मऋतुमें पर्वतके शिखर पर अधिक ताप और तीव्र तृषा लगी हो, उस समय पानीकी एक बूँदकी ओर भी उसका लक्ष जाता है और वह उसे लेनेको दौड़ता है, उसी प्रकार जिस जीवको संसारका ताप लगा हो और सत्की तीव्र पिपासा जागी हो, वह सत्की प्राप्तिके लिये उग्र प्रयत्न करता है । वह आत्मार्थी जीव ‘ज्ञान’लक्षण द्वारा ज्ञायक आत्माकी प्रतीति करके अंतरसे उसके अस्तित्वको ख्यालमें ले, तो उसे ज्ञायक तत्त्व प्रगट हो ।।२७८।।
विचार, मंथन सब विकल्परूप ही है । उससे भिन्न विकल्पातीत एक स्थायी ज्ञायक तत्त्व सो आत्मा है । उसमें ‘यह विकल्प तोड़ दूँ, यह विकल्प तोड़ दूँ’ वह भी विकल्प ही है; उसके उस पार भिन्न ही चैतन्यपदार्थ है । उसका अस्तिपना ख्यालमें आये, ‘मैं भिन्न हूँ, यह मैं ज्ञायक भिन्न हूँ’ ऐसा निरंतर घोटन रहे, वह भी अच्छा है । पुरुषार्थकी उग्रता तथा उस प्रकारका आरंभ हो तो मार्ग निकलता ही है । पहले