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बहिनश्रीके वचनामृत
विकल्प नहीं टूटता परन्तु पहले पक्का निर्णय आता है ।।२७९।।
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वास्तवमें जिसे स्वभाव रुचे, अंतरकी जागृति हो, उसे बाहर आना सुहाता ही नहीं । स्वभाव शान्ति एवं निवृत्तिरूप है, शुभाशुभ विभावभावोंमें आकुलता और प्रवृत्ति है; उन दोनोंका मेल ही नहीं बैठता ।।२८०।।
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बाहरके सब कार्योंमें सीमा — मर्यादा होती है । अमर्यादित तो अन्तर्ज्ञान और आनन्द है । वहाँ सीमा — मर्यादा नहीं है । अंतरमें — स्वभावमें मर्यादा नहीं होती । जीवको अनादि कालसे जो बाह्य वृत्ति है उसकी यदि मर्यादा न हो तब तो जीव कभी उससे विमुख ही न हो, सदा बाह्यमें ही रुका रहे । अमर्यादित तो आत्मस्वभाव ही है । आत्मा अगाध शक्ति से भरा है ।।२८१।।
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