यह जो बाह्य लोक है उससे चैतन्यलोक पृथक्
ही है । बाह्यमें लोग देखते हैं कि ‘इन्होंने ऐसा
किया, ऐसा किया’, परन्तु अंतरमें ज्ञानी कहाँ रहते
हैं, क्या करते हैं, वह तो ज्ञानी स्वयं ही जानते हैं ।
बाहरसे देखनेवाले मनुष्योंको ज्ञानी बाह्यमें कुछ
क्रियाएँ करते या विकल्पोंमें पड़ते दिखाई देते हैं,
परन्तु अंतरमें तो वे कहीं चैतन्यलोककी गहराईमें
विचरते हैं ।।२८२।।
✽
द्रव्य तो अनंत शक्ति का स्वामी है, महान है, प्रभु
है । उसके सामने साधककी पर्याय अपनी पामरता
स्वीकार करती है । साधकको द्रव्य-पर्यायमें प्रभुता
और पामरताका ऐसा विवेक वर्तता है ।।२८३।।
✽
साधक दशा तो अधूरी है । साधकको जब तक
पूर्ण वीतरागता न हो, और चैतन्य आनन्दधाममें
पूर्णरूपसे सदाके लिये विराजमान न हो जाय, तब
तक पुरुषार्थकी धारा तो उग्र ही होती जाती है ।
केवलज्ञान होने पर एक समयका उपयोग होता है
बहिनश्रीके वचनामृत
[ १११