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बहिनश्रीके वचनामृत
और वह एक समयकी ज्ञानपर्याय तीन काल एवं तीन लोकको जान लेती है ।।२८४।।
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स्वयं परसे और विभावसे भिन्नताका विचार करना चाहिये । एकताबुद्धि तोड़ना वह मुख्य है । प्रतिक्षण एकत्वको तोड़नेका अभ्यास करना चाहिये ।।२८५।।
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यह तो अनादिका प्रवाह मोड़ना है । कार्य कठिन तो है, परन्तु स्वयं ही करना है। बाह्य आधार किस कामका ? आधार तो अपने आत्मतत्त्वका लेना है ।।२८६।।
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द्रव्य सदा निर्लेप है । पर्यायमें सबसे निर्लेप रहने जैसा है । कहीं खेद नहीं करना, खिंचना नहीं — कहीं अधिक राग नहीं करना ।।२८७।।
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वस्तु सूक्ष्म है, उपयोग स्थूल हो गया है । सूक्ष्म