बहिनश्रीके वचनामृत
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वस्तुको पकड़नेके लिये सूक्ष्म उपयोगका प्रयत्न कर ।।२८८।।
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चैतन्यकी गहरी भावना तो अन्य भवमें भी चैतन्यके साथ ही आती है । आत्मा तो शाश्वत पदार्थ है न ? ऊपरी विचारोंमें नहीं परन्तु अंतरमें मंथन करके तत्त्वविचारपूर्वक गहरे संस्कार डाले होंगे तो वे साथ आयँगे ।
‘‘तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता ।
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।।’’’’
जिस जीवने प्रसन्नचित्तसे इस चैतन्यस्वरूप आत्माकी बात भी सुनी है, वह भव्य पुरुष भविष्यमें होनेवाली मुक्ति का अवश्य भाजन होता है ।।२८९।।
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आत्मा ज्ञानप्रधान अनंत गुणोंका पिण्ड है । उसके साथ अंतरमें तन्मयता करना वही कर्तव्य है । वस्तुस्वरूपको समझकर ‘मैं तो ज्ञायक हूँ’ ऐसी लगन ब. व. ८