लगाये तो ज्ञायकके साथ तदाकारता हो ।।२९०।।
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जिनेन्द्रमन्दिर, जिनेन्द्रप्रतिमा मंगलस्वरूप हैं; तो
फि र समवसरणमें विराजमान साक्षात् जिनेन्द्रभगवानकी
महिमा और उनके मंगलपनेका क्या कहना ! सुरेन्द्र भी
भगवानके गुणोंकी महिमाका वर्णन नहीं कर सकते,
तब दूसरे तो क्या कर सकेंगे ? २९१।।
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जिस समय ज्ञानीकी परिणति बाहर दिखायी दे
उसी समय उन्हें ज्ञायक भिन्न वर्तता है । जैसे
किसीको पड़ौसीके साथ बड़ी मित्रता हो, उसके घर
जाता-आता हो, परन्तु वह पड़ौसीको अपना नहीं मान
लेता, उसी प्रकार ज्ञानीको विभावमें कभी
एकत्वपरिणमन नहीं होता । ज्ञानी सदा कमलकी
भाँति निर्लेप रहते हैं, विभावसे भिन्नरूप ऊपर-ऊपर
तैरते रहते हैं ।।२९२।।
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ज्ञानीको तो ऐसी ही भावना होती है कि इस
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बहिनश्रीके वचनामृत