Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 294-295.

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बहिनश्रीके वचनामृत

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समय पुरुषार्थ चले तो इसी समय मुनि होकर केवलज्ञान प्राप्त कर लें । बाहर आना पड़े वह अपनी निर्बलताके कारण है ।।२९३।।

ज्ञानीको ‘मैं ज्ञायक हूँ’ ऐसी धारावाही परिणति अखण्डित रहती है । वे भक्ति -शास्त्रस्वाध्याय आदि बाह्य प्रसंगोंमें उल्लासपूर्वक भाग लेते दिखायी देते हैं तब भी उनकी ज्ञायकधारा तो अखण्डितरूपसे अंतरमें भिन्न ही कार्य करती रहती है ।।२९४।।

यद्यपि द्रष्टि-अपेक्षासे साधकको किसी पर्यायका या गुणभेदका स्वीकार नहीं है तथापि उसे स्वरूपमें स्थिर हो जानेकी भावना तो वर्तती है । रागांशरूप बहिर्मुखता उसे दुःखरूपसे वेदनमें आती है और वीतरागता-अंशरूप अंतर्मुखता सुखरूपसे वेदनमें आती है । जो आंशिक बहिर्मुख वृत्ति वर्तती हो उससे साधक न्याराका न्यारा रहता है । आँखमें किरकिरी नहीं समाती उसी प्रकार चैतन्यपरिणतिमें विभाव नहीं समाता । यदि साधकको बाह्यमें