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बहिनश्रीके वचनामृत
प्रशस्त-अप्रशस्त रागमें — दुःख न लगे और अंतरमें
— वीतरागतामें — सुख न लगे तो वह अंतरमें क्यों
जाये ? कहीं रागके विषयमें ‘राग आग दहै’ ऐसा
कहा हो, कहीं प्रशस्त रागको ‘विषकुम्भ’ कहा हो,
चाहे जिस भाषामें कहा हो, सर्वत्र भाव एक ही है
कि — विभावका अंश वह दुःखरूप है । भले ही
उच्चमें उच्च शुभभावरूप या अतिसूक्ष्म रागरूप प्रवृत्ति
हो तथापि जितनी प्रवृत्ति उतनी आकुलता है और
जितना निवृत्त होकर स्वरूपमें लीन हुआ उतनीहुआ उतनी
शान्ति एवं स्वरूपानन्द है ।।२९५।।
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द्रव्य तो सूक्ष्म है, उसे पकड़नेके लिये सूक्ष्म
उपयोग कर । पातालकुएँकी भाँति द्रव्यमें गहराई तक
उतर जा तो अंतरसे विभूति प्रगट होगी । द्रव्य
आश्चर्यकारी है ।।२९६।।
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तेरा कार्य तो तत्त्वानुसारी परिणमन करना है ।
जड़के कार्य तेरे नहीं हैं । चेतनके कार्य चेतन होते
हैं । वैभाविक कार्य भी परमार्थसे तेरे नहीं हैं ।