जीवनमें ऐसा ही घुट जाना चाहिये कि जड़ और
विभाव वे पर हैं, मैं वह नहीं हूँ ।।२९७।।
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ज्ञानी जीव निःशंक तो इतना होता है कि सारा
ब्रह्माण्ड उलट जाये तब भी स्वयं नहीं पलटता;
विभावके चाहे जितने उदय आयें तथापि चलित नहीं
होता । बाहरके प्रतिकूल संयोगसे ज्ञायकपरिणति नहीं
बदलती; श्रद्धामें फे र नहीं पड़ता । पश्चात् क्रमशः
चारित्र बढ़ता जाता है ।।२९८।।
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वस्तु स्वतःसिद्ध है । उसका स्वभाव उसके
अनुकूल होता है, प्रतिकूल नहीं । स्वतःसिद्ध आत्म-
वस्तुका दर्शनज्ञानरूप स्वभाव उसे अनुकूल है, राग-
द्वेषरूप विभाव प्रतिकूल है ।।२९९।।
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परिभ्रमण करते अनंत काल बीत गया । उस
अनंत कालमें जीवने ‘आत्माका करना है’ ऐसी
भावना तो की परन्तु तत्त्वरुचि और तत्त्वमंथन नहीं
बहिनश्रीके वचनामृत
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