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किया । रुचनेमें तो एक आत्मा ही रुचे ऐसा जीवन बना लेना चाहिए ।।३००।।
जीव राग और ज्ञानकी एकतामें उलझ गया है । निज अस्तित्वको पकड़े तो उलझन निकल जाये । ‘मैं ज्ञायक हूँ’ ऐसा अस्तित्व लक्षमें आना चाहिये । ‘ज्ञायकके अतिरिक्त अन्य सब पर है’ ऐसा उसमें आ जाता है ।।३०१।।
ज्ञानीको संसारका कुछ नहीं चाहिये; वे संसारसे भयभीत हैं । वे संसारसे विमुख होकर मोक्षके मार्ग पर चल रहे हैं । स्वभावमें सुभट हैं, अंतरसे निर्भय हैं, किसीसे डरते नहीं हैं । किसी उपसर्गका भय नहीं है । मुझमें किसीका प्रवेश नहीं है — ऐसे निर्भय हैं । विभावको तो काले नागकी भाँति छोड़ दिया है ।।३०२।।
सम्यग्द्रष्टिको अखण्ड तत्त्वका आश्रय है, अखण्ड परसे द्रष्टि छूट जाये तो साधकपना ही न रहे । द्रष्टि