बहिनश्रीके वचनामृत
तो अंतरमें है । चारित्रमें अपूर्णता है । वह बाहर खड़ा दिखायी दे परन्तु द्रष्टि तो स्वमें ही है ।।३०३।।
भगवानकी प्रतिमा देखकर ऐसा लगे कि अहा ! भगवान कैसे स्थिर हो गये हैं ! कैसे समा गये हैं ! चैतन्यका प्रतिबिम्ब है ! तू ऐसा ही है ! जैसे भगवान पवित्र हैं, वैसा ही तू पवित्र है, निष्क्रिय है, निर्विकल्प है । चैतन्यके सामने सब कुछ पानी भरता है ।।३०४।।
तू अपनेको देख; जैसा तू है वैसा ही तू प्रगट होगा । तू महान देवाधिदेव है; उसकी प्रगटताके लिये उग्र पुरुषार्थ एवं सूक्ष्म उपयोग कर ।।३०५।।
रुचिका पोषण और तत्त्वका मंथन चैतन्यके साथ एकाकार हो जाय तो कार्य होता ही है । अनादिके अभ्याससे विभावमें ही प्रेम लगा है उसे छोड़ । जिसे आत्मा रुचता है उसे दूसरा नहीं रुचता और उससे आत्मा गुप्त — अप्राप्य नहीं रहता । जागता