ज्ञानी जीव दाहसे अर्थात् रागसे दूर भागता है एवं शीतलताकी ओर ढलता है ।।३२३।।
जैसे एक रत्नका पर्वत हो और एक रत्नका कण हो वहाँ कण तो नमूनेरूप है, पर्वतका प्रकाश और उसका मूल्य अत्यधिक होता है; उसी प्रकार केवलज्ञानकी महिमा श्रुतज्ञानकी अपेक्षा अत्यधिक है । एक समयमें सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको सम्पूर्णरूपसे जाननेवाले केवलज्ञानमें और अल्प सामर्थ्यवाले श्रुतज्ञानमें — भले ही वह अंतर्मुहूर्तमें सर्व श्रुत फे रनेवाले श्रुतकेवलीका श्रुतज्ञान हो तथापि — बहुत बड़ा अंतर है । जहाँ ज्ञान अनंत किरणोंसे प्रकाशित हो उठा, जहाँ चैतन्यकी चमत्कारिक ऋद्धि पूर्ण प्रगट हो गई — ऐसे पूर्ण क्षायिक ज्ञानमें और खण्डात्मक क्षायोपशमिक ज्ञानमें अनन्तगुना अंतर है ।।३२४।।
ज्ञानीको स्वानुभूतिके समय या उपयोग बाहर आये तब द्रष्टि तो सदा अंतस्तल पर ही लगी रहती