Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 326-328.

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बहिनश्रीके वचनामृत
है । बाह्यमें एकमेक हुआ दिखायी दे तब भी वह
तो (द्रष्टि-अपेक्षासे) गहरी अंतर्गुफामेंसे बाहर
निकलता ही नहीं ।।३२५।।
जिसने तलको स्पर्श किया उसे बाहर सब थोथा
लगता है । चैतन्यके तलमें पहुँच गया वह
चैतन्यकी विभूतिमें पहुँच गया ।।३२६।।
देवलोकमें उच्च प्रकारके रत्न और महल हों उससे
आत्माको क्या ? कर्मभूमिके मनुष्य भोजन पकाकर
खाते हैं वहाँ भी आकुलता और देवोंके कण्ठमें अमृत
झरता है वहाँ भी आकुलता ही है । छह खण्डको
साधनेवाले चक्रवर्तीके राज्यमें भी आकुलता है ।
अंतरकी ऋद्धि न प्रगटे, शान्ति न प्रगटे, तो बाह्य
ऋद्धि और वैभव क्या शान्ति देंगे ? ३२७।।
मुनिदशाका क्या कहना ! मुनि तो प्रमत्त-
अप्रमत्तपनेमें सदा झूलनेवाले हैं ! उन्हें तो सर्वगुण-