मुनिराज बारम्बार निर्विकल्परूपसे चैतन्यनगरमें प्रवेश करके अद्भुत ऋद्धिका अनुभव करते हैं । उस दशामें, अनन्त गुणोंसे भरपूर चैतन्यदेव भिन्न-भिन्न प्रकारकी चमत्कारिक पर्यायोंरूप तरंगोंमें एवं आश्चर्यकारी आनन्दतरंगोंमें डोलता है । मुनिराज तथा सम्यग्द्रष्टि जीवका यह स्वसंवेदन कोई और ही है, वचनातीत है । वहाँ शून्यता नहीं है, जागृतरूपसे अलौकिक ऋद्धिका अत्यन्त स्पष्ट वेदन है । तू वहाँ जा, तुझे चैतन्यदेवके दर्शन होंगे ।।३२९।।
अहो ! मुनिराज तो निजात्मधाममें निवास करते हैं । उसमें विशेष-विशेष एकाग्र होते-होते वे वीतरागताको प्राप्त करते हैं ।
वीतरागता होनेसे उन्हें ज्ञानकी अगाध अद्भुत शक्ति प्रगट होती है । ज्ञानका अंतर्मुहूर्तका स्थूल उपयोग छूटकर एक समयका सूक्ष्म उपयोग हो जाता है । वह ज्ञान अपने क्षेत्रमें रहकर सर्वत्र पहुँच जाता