बहिनश्रीके वचनामृत
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सम्पन्न कहा जा सकता है ! ३२८।।
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मुनिराज बारम्बार निर्विकल्परूपसे चैतन्यनगरमें
प्रवेश करके अद्भुत ऋद्धिका अनुभव करते हैं । उस
दशामें, अनन्त गुणोंसे भरपूर चैतन्यदेव भिन्न-भिन्न
प्रकारकी चमत्कारिक पर्यायोंरूप तरंगोंमें एवं
आश्चर्यकारी आनन्दतरंगोंमें डोलता है । मुनिराज तथा
सम्यग्द्रष्टि जीवका यह स्वसंवेदन कोई और ही है,
वचनातीत है । वहाँ शून्यता नहीं है, जागृतरूपसे
अलौकिक ऋद्धिका अत्यन्त स्पष्ट वेदन है । तू वहाँ
जा, तुझे चैतन्यदेवके दर्शन होंगे ।।३२९।।
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अहो ! मुनिराज तो निजात्मधाममें निवास करते
हैं । उसमें विशेष-विशेष एकाग्र होते-होते वे
वीतरागताको प्राप्त करते हैं ।
वीतरागता होनेसे उन्हें ज्ञानकी अगाध अद्भुत
शक्ति प्रगट होती है । ज्ञानका अंतर्मुहूर्तका स्थूल
उपयोग छूटकर एक समयका सूक्ष्म उपयोग हो जाता
है । वह ज्ञान अपने क्षेत्रमें रहकर सर्वत्र पहुँच जाता