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सहज दशा ही नहीं है । तथा प्रगट हुई दशाको बनाये रखनेका कोई अलग पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता; क्योंकि बढ़नेका पुरुषार्थ करता है जिससे वह दशा तो सहज ही बनी रहती है ।।३९।।
साधक दशामें शुभ भाव बीचमें आते हैं; परन्तु साधक उन्हें छोड़ता जाता है; साध्यका लक्ष नहीं चूकता । — जैसे मुसाफि र एक नगरसे दूसरे नगर जाता है तब बीचमें अन्य-अन्य नगर आयें उन्हें छोड़ता जाता है, वहाँ रुकता नहीं है; जहाँ जाना है वहींका लक्ष रहता है ।।४०।।
सच्ची उत्कंठा हो तो मार्ग मिलता ही है, मार्ग न मिले ऐसा नहीं बनता । जितना कारण दे उतना कार्य होता ही है । अन्दर वेदन सहित भावना हो तो मार्ग ढूँढ़े ।।४१।।
यथार्थ रुचि सहित शुभभाव वैराग्य एवं उपशम- रससे सराबोर होते हैं; और यथार्थ रुचि बिना, वहके