वही शुभभाव रूखे एवं चंचलतायुक्त होते हैं ।।४२।।
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जिस प्रकार कोई बालक अपनी मातासे बिछुड़
गया हो, उससे पूछें कि ‘तेरा नाम क्या ?’ तो
कहता है ‘मेरी माँ’, ‘तेरा गाँव कौन ?’ तो कहता
है ‘मेरी माँ’, ‘तेरे माता-पिता कौन हैं ?’ तो कहता
है ‘मेरी माँ’, उसी प्रकार जिसे आत्माकी सच्ची
रुचिसे ज्ञायकस्वभाव प्राप्त करना है उसे हरएक
प्रसंगमें ‘ज्ञायकस्वभाव....ज्ञायकस्वभाव’ — ऐसी
लगन बनी ही रहती है, उसीकी निरंतर रुचि एवं
भावना रहती है ।।४३।।
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रुचिमें सचमुच अपनेको आवश्यकता लगे तो
वस्तुकी प्राप्ति हुए बिना रहती ही नहीं । उसे चौबीसों
घण्टे एक ही चिंतन, मंथन, खटका बना रहता है ।
जिस प्रकार किसीको ‘माँ’ का प्रेम हो तो उसे माँकी
याद, उसका खटका निरंतर बना ही रहता है, उसी
प्रकार जिसे आत्माका प्रेम हो वह भले ही शुभमें
उल्लासपूर्वक भाग लेता हो तथापि अंतरमें खटका तो
आत्माका ही रहता है । ‘माँ’ के प्रेमवाला भले ही
बहिनश्रीके वचनामृत
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ब. व. २