Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 45.

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बहिनश्रीके वचनामृत

कुटुम्ब-परिवारके समूहमें बैठा हो, आनन्द करता हो, परन्तु मन तो ‘माँ’ में ही लगा रहता है : ‘अरे ! मेरी माँ....मेरी माँ !’; उसी प्रकार आत्माका खटका रहना चाहिये । चाहे जिस प्रसंगमें ‘मेरा आत्मा....मेरा आत्मा !’ यही खटका और रुचि रहना चाहिये । ऐसा खटका बना रहे तो ‘आत्म-माँ’ मिले बिना नहीं रह सकती ।।४४।।

अंतरका तल खोजकर आत्माको पहिचान । शुभ परिणाम, धारणा आदिका थोड़ा पुरुषार्थ करके ‘मैंने बहुत किया है’ ऐसा मानकर, जीव आगे बढ़नेके बदले अटक जाता है । अज्ञानीको जरा कुछ आ जाय, धारणासे याद रह जाय, वहाँ उसे अभिमान हो जाता है; क्योंकि वस्तुके अगाध स्वरूपका उसे ख्याल ही नहीं है; इसलिये वह बुद्धिके विकास आदिमें संतुष्ट होकर अटक जाता है । ज्ञानीको पूर्णताका लक्ष होनेसे वह अंशमें नहीं अटकता । पूर्ण पर्याय प्रगट हो तो भी स्वभाव था सो प्रगट हुआ इसमें नया क्या है ? इसलिये ज्ञानीको अभिमान नहीं होता ।।४५ ।।