८० ]
जाना जा सकता है । चैतन्यकी महिमापूर्वक संसारकी महिमा छूटे तभी चैतन्यदेव समीप आता है ।
हे शुद्धात्मदेव ! तेरी शरणमें आनेसे ही यह पंचपरावर्तनरूपी रोग शान्त होता है । जिसे चैतन्यदेवकी महिमा आयी उसे संसारकी महिमा छूट ही जाती है । अहो ! मेरे चैतन्यदेवमें तो परम विश्रान्ति है, बाहर निकलने पर तो अशान्तिका ही अनुभव होता है ।
मैं निर्विकल्प तत्त्व ही हूँ । ज्ञानानन्दसे भरा हुआ जो निर्विकल्प तत्त्व, बस वही मुझे चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये ।।२०५।।
ज्ञानीने चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण किया है । अभेदमें ही द्रष्टि है : ‘मैं तो ज्ञानानन्दमय एक वस्तु हूँ’। उसे विश्रान्तिका महल मिल गया है, जिसमें अनंत आनन्द भरा है । शान्तिका स्थान, आनन्दका स्थान — ऐसा पवित्र उज्ज्वल आत्मा है । वहाँ — ज्ञायकमें — रहकर ज्ञान सब करता है परन्तु द्रष्टि तो अभेद पर ही है । ज्ञान सब करता है परन्तु द्रष्टिका