जाना जा सकता है । चैतन्यकी महिमापूर्वक संसारकी
महिमा छूटे तभी चैतन्यदेव समीप आता है ।
हे शुद्धात्मदेव ! तेरी शरणमें आनेसे ही यह
पंचपरावर्तनरूपी रोग शान्त होता है । जिसे
चैतन्यदेवकी महिमा आयी उसे संसारकी महिमा छूट
ही जाती है । अहो ! मेरे चैतन्यदेवमें तो परम
विश्रान्ति है, बाहर निकलने पर तो अशान्तिका ही
अनुभव होता है ।
मैं निर्विकल्प तत्त्व ही हूँ । ज्ञानानन्दसे भरा हुआ
जो निर्विकल्प तत्त्व, बस वही मुझे चाहिये, दूसरा
कुछ नहीं चाहिये ।।२०५।।
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ज्ञानीने चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण किया है ।
अभेदमें ही द्रष्टि है : ‘मैं तो ज्ञानानन्दमय एक वस्तु
हूँ’। उसे विश्रान्तिका महल मिल गया है, जिसमें
अनंत आनन्द भरा है । शान्तिका स्थान, आनन्दका
स्थान — ऐसा पवित्र उज्ज्वल आत्मा है । वहाँ —
ज्ञायकमें — रहकर ज्ञान सब करता है परन्तु द्रष्टि तो
अभेद पर ही है । ज्ञान सब करता है परन्तु द्रष्टिका
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बहिनश्रीके वचनामृत