Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 209-210.

< Previous Page   Next Page >


Page 82 of 212
PDF/HTML Page 97 of 227

 

८२ ]

बहिनश्रीके वचनामृत

ग्रहण कर । उस एकको ही ग्रहण कर । उपयोग बाहर जाये परन्तु चैतन्यका अवलम्बन उसे अंतरमें ही लाता है । बारम्बार....बारम्बार ऐसा करते.... करते....करते (स्वरूपमें लीनता जमते....जमते) क्षपकश्रेणी प्रगट होकर पूर्ण हो जाता है । जो वस्तु है उसी पर अपनी द्रष्टिकी डोर बाँध, पर्यायके अवलम्बनसे कुछ नहीं होगा ।।२०८।।

जैसे राजा अपने महलमें दूर-दूर अंतःपुरमें रहता है वैसे ही चैतन्यराजा दूर-दूर चैतन्यके महलमें ही निवास करता है; वहाँ जा ।।२०९।।

तू स्वयं मार्ग जानता नहीं है और जाननेवालेको साथ नहीं रखेगा, तो तू एक डग भी कैसे भरेगा ? तू स्वयं तो अंधा है, और यदि गुरुवाणी एवं श्रुतका अवलम्बन नहीं रखेगा, तो अंतरमें जो साधकका मार्ग है वह तुझे कैसे सूझेगा ? सम्यक्त्व कैसे होगा ? साधकपना कैसे आयगा ? केवलज्ञान कैसे प्रगट होगा ?