Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 209-210.

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ग्रहण कर । उस एकको ही ग्रहण कर । उपयोग
बाहर जाये परन्तु चैतन्यका अवलम्बन उसे अंतरमें ही
लाता है । बारम्बार....बारम्बार ऐसा करते....
करते....करते (स्वरूपमें लीनता जमते....जमते)
क्षपकश्रेणी प्रगट होकर पूर्ण हो जाता है । जो वस्तु
है उसी पर अपनी द्रष्टिकी डोर बाँध, पर्यायके
अवलम्बनसे कुछ नहीं होगा ।।२०८।।
जैसे राजा अपने महलमें दूर-दूर अंतःपुरमें रहता
है वैसे ही चैतन्यराजा दूर-दूर चैतन्यके महलमें ही
निवास करता है; वहाँ जा ।।२०९।।
तू स्वयं मार्ग जानता नहीं है और जाननेवालेको
साथ नहीं रखेगा, तो तू एक डग भी कैसे भरेगा ?
तू स्वयं तो अंधा है, और यदि गुरुवाणी एवं
श्रुतका अवलम्बन नहीं रखेगा, तो अंतरमें जो
साधकका मार्ग है वह तुझे कैसे सूझेगा ? सम्यक्त्व
कैसे होगा ? साधकपना कैसे आयगा ? केवलज्ञान
कैसे प्रगट होगा ?
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बहिनश्रीके वचनामृत