ज्ञानीने ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवी धारावाही परिणति अखंडित रहे छे. ते बहारना भक्ति-शास्त्र-स्वाध्याय आदि प्रसंगोमां उल्लासपूर्वक जोडाता देखाय त्यारे पण तेमनी ज्ञायकधारा तो अखंडितपणे अंदर जुदी ज कार्य कर्या करे छे. २९४.
जोके द्रष्टि-अपेक्षाए साधकने कोई पर्यायनो के गुणभेदनो स्वीकार नथी तोपण तेने स्वरूपमां ठरी जवानी भावना तो वर्ते छे. रागांशरूप बहिर्मुखता तेने दुःखरूपे वेदाय छे अने वीतरागता-अंशरूप अंतर्मुखता सुखरूपे वेदाय छे. जे आंशिक बहिर्मुख वृत्ति वर्तती होय तेनाथी साधक न्यारो ने न्यारो रहे छे. आंखमां कणुं न समाय तेम चैतन्यपरिणतिमां विभाव न समाय. जो साधकने बहारमां — प्रशस्त
अंदरमां — वीतरागतामां — सुख न लागे तो ते अंदर केम जाय? क्यांक राग विषे ‘राग आग दहे’ एम कह्युं होय, क्यांक प्रशस्त रागने ‘विषकुंभ’ कह्यो होय, गमे ते भाषामां कह्युं होय, सर्वत्र भाव एक ज छे के — विभावनो अंश ते दुःखरूप छे. भले ऊंचामां ऊंचा शुभभावरूप के अतिसूक्ष्म रागरूप प्रवृत्ति होय तोपण जेटली प्रवृत्ति तेटली आकुळता छे अने जेटलो निवृत्त थई स्वरूपमां लीन