आवे तो उपदेश आपे, पण विकल्पनी जाळ चालती नथी. १८८.
तारो द्रष्टिनो दोर चैतन्य उपर बांधी दे. पतंग आकाशमां उडाडे पण दोर हाथमां होय, तेम द्रष्टिनो दोर चैतन्यमां बांधी दे, पछी भले उपयोग बहार जतो होय. अनादि-अनंत अद्भुत आत्माने — परम पारिणामिक भावरूप अखंड एक भावने — अवलंब. परिपूर्ण आत्मानो आश्रय कर तो पूर्णता आवशे. गुरुनी वाणी प्रबळ निमित्त छे पण समजीने आश्रय करवानो तो पोताने ज छे. १८९.
में अनादि काळथी बधुं बहार-बहारनुं ग्रहण कर्युं — बहारनुं ज्ञान कर्युं, बहारनुं ध्यान कर्युं, बहारनुं मुनिपणुं लीधुं, अने मानी लीधुं के में घणुं कर्युं. शुभभाव कर्या पण द्रष्टि पर्याय उपर हती. अगाध शक्तिवाळो जे चैतन्यचक्रवर्ती तेने न ओळख्यो, न ग्रहण कर्यो. सामान्यस्वरूपने ग्रहण कर्युं नहि, विशेषने ग्रह्युं. १९०.
द्रष्टिनो दोर हाथमां राख. सामान्य स्वरूपने ग्रहण