વિભાવ થઈ જાય છે, તો શું કરવું ? 0 Play विभाव थई जाय छे, तो शुं करवुं ? 0 Play
વાંચન કરતાં થાય કે જ્ઞાયકમાં જ સુખ છે પણ અનુકૂળતા 0:50 Play वांचन करतां थाय के ज्ञायकमां ज सुख छे पण अनुकूळता 0:50 Play
જ્ઞાયકમાં એકત્વબુદ્ધિ કેવી રીતે થાય? 2:45 Play ज्ञायकमां एकत्वबुद्धि केवी रीते थाय? 2:45 Play
અનુભૂતિકાળે દ્રષ્ટિ દ્રવ્ય પર હોય ત્યારે પરનું જ્ઞાન થાય છે કે માત્ર સ્વ પોતાનું જ જ્ઞાન થાય છે? 3:40 Play अनुभूतिकाळे द्रष्टि द्रव्य पर होय त्यारे परनुं ज्ञान थाय छे के मात्र स्व पोतानुं ज ज्ञान थाय छे? 3:40 Play
પ્રયત્ન કરે તો અનુભવ થાય–તે વિષે 6:35 Play प्रयत्न करे तो अनुभव थाय–ते विषे 6:35 Play
ઉપયોગ બહારમાં હોય ત્યારે ધર્માત્માને આત્માનું વેદન ચાલુ હોય તે જ્ઞાનમાં પકડાય? 9:40 Play उपयोग बहारमां होय त्यारे धर्मात्माने आत्मानुं वेदन चालु होय ते ज्ञानमां पकडाय? 9:40 Play
સમ્યગ્દ્રષ્ટિને જે શાંતિની ધારા ચાલી રહી છે, તે પરિણતિ ઇન્દ્રિયજ્ઞાન છે? 15:30 Play सम्यग्द्रष्टिने जे शांतिनी धारा चाली रही छे, ते परिणति इन्द्रियज्ञान छे? 15:30 Play
મુનિરાજ વારંવાર નિર્વિકલ્પદશા પામે છે તેમાં બહારના શુભાશુભ ભાવમાં તો એવી તાકાત નથી–તો શું જે શુદ્ધ પરિણતી વહે છે તે ઉપયોગને અંદર લાવતી હશે? 16:30 Play मुनिराज वारंवार निर्विकल्पदशा पामे छे तेमां बहारना शुभाशुभ भावमां तो एवी ताकात नथी–तो शुं जे शुद्ध परिणती वहे छे ते उपयोगने अंदर लावती हशे? 16:30 Play
ઉપયોગ બહારમાં હોય ત્યારે પરિણતી લબ્ધરૂપ છે તેમ ગણાય 17:30 Play उपयोग बहारमां होय त्यारे परिणती लब्धरूप छे तेम गणाय 17:30 Play
हाँ, वह तो शरीर किया करता है। शरीर भिन्न और आत्मा, दोनों वस्तु भिन्नहै। विभाव आकुलता हो लेकिन वह अपना स्वभाव नहीं है।
प्रश्नः- हो जाती है।
समाधानः- वह अपना स्वभाव नहीं है। विभाव स्वयं ही आकुलतास्वरूप है, वह दुःखरूप है, उससे आत्मा भिन्न है। उससे आत्मा को भिन्न पहिचानना, भेदज्ञान करना, उसका प्रयास करना, वही कर्तव्य है, जीवन में वही करने जैसा है। सुख और शान्ति उसमें ही है, बाहर कहीं भी सुख-शान्ति है ही नहीं।
प्रश्नः- बाह्य सुख में माताजी! इतनी भ्रान्ति रहती है। स्वाध्याय करते समय लगेकि ज्ञायक में ही सुख भरा है। लेकिन बाहर में थोडे भी अनुकूल संयोग मिले, इससे तो अच्छा हुआ, ऐसी भ्रान्ति में अनुकूलता लगती है। विभाव में ही रहना होता है। वह क्यों नहीं छूटता है?
समाधानः- अनादि का अभ्यास है, एकत्वबुद्धि अनादि का अनादि का है।उससे भिन्न होना वह स्वयं प्रयास करे तो छूटे। निरंतर उसका अभ्यास करना पडे, निरंतर, निरंतर, निरंतर करना पडे। तो होता है। अनादि का प्रवाह है उसमें दौडता