Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Entry point of HTML version.

Next Page >


PDF/HTML Page 1 of 1906

 

ट्रेक-

००४

अमृत वाणी (भाग-२)
(प्रशममूर्ति पूज्य बहेनश्री चंपाबहेन की
आध्यात्मिक तत्त्वचर्चा)
ट्रेक-००४ (audio) (View topics)

हाँ, वह तो शरीर किया करता है। शरीर भिन्न और आत्मा, दोनों वस्तु भिन्न है। विभाव आकुलता हो लेकिन वह अपना स्वभाव नहीं है।

प्रश्नः- हो जाती है।

समाधानः- वह अपना स्वभाव नहीं है। विभाव स्वयं ही आकुलतास्वरूप है, वह दुःखरूप है, उससे आत्मा भिन्न है। उससे आत्मा को भिन्न पहिचानना, भेदज्ञान करना, उसका प्रयास करना, वही कर्तव्य है, जीवन में वही करने जैसा है। सुख और शान्ति उसमें ही है, बाहर कहीं भी सुख-शान्ति है ही नहीं।

प्रश्नः- बाह्य सुख में माताजी! इतनी भ्रान्ति रहती है। स्वाध्याय करते समय लगे कि ज्ञायक में ही सुख भरा है। लेकिन बाहर में थोडे भी अनुकूल संयोग मिले, इससे तो अच्छा हुआ, ऐसी भ्रान्ति में अनुकूलता लगती है। विभाव में ही रहना होता है। वह क्यों नहीं छूटता है?

समाधानः- अनादि का अभ्यास है, एकत्वबुद्धि अनादि का अनादि का है। उससे भिन्न होना वह स्वयं प्रयास करे तो छूटे। निरंतर उसका अभ्यास करना पडे, निरंतर, निरंतर, निरंतर करना पडे। तो होता है। अनादि का प्रवाह है उसमें दौडता