२ है। स्वयं जाननेवाला अन्दर भिन्न ही है। जाननेवाले में ही सब भरा है। वस्तु ही वही है। जाननेवाला है उसमें ही पूरा महत्त्व और पूर्ण आश्चर्य भरा है। बाहर में कहीं भी आश्चर्य नहीं है। लेकिन उसको बाहर में एकत्वबुद्धि के कारण दोड जाता है, बाहर में आश्चर्य लगता है। बाहर में कहीं भी आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो अन्दर आत्मा ही आश्चर्यरूप वस्तु है, वही अनुपम है। उसके जैसा कोई नहीं है। यह सब तो परपदार्थ है। जगत में अनुपम और आश्चर्यकारी पदार्थ हो तो आत्मा ही है। उसका बार-बार अभ्यास, उसकी महिमा, उसके-तत्त्व के-वस्तु के विचार (करना)। वह नहीं हो तबतक शुभभाव में जिनेन्द्रदेव, गुरु और शास्त्र की महिम (करनी)। बाकी अन्दर शुद्धात्मा, ध्येय तो एक शुद्धात्मा का होना चाहिये। आत्मा ही सर्वस्व है।
प्रश्नः- ज्ञायक में एकत्वबुद्धि कैसे करनी? माताजी!
समाधानः- वह तो स्वयं प्रयास करे तो होती है, बिना प्रयास होती नहीं। पर के साथ एकत्वबुद्धि प्रतिक्षण ऐसी अनादि की भ्रान्ति के कारण उसके साथ एकमेक हो गया है। उतना प्रयास अन्दर अपना स्वभाव है उसमें करे तो एक क्षण में हो ऐसा है। लेकिन नहीं हो तबतक उसका निरंतर अभ्यास करना चाहिये। वह तो ऐसे ही चौबीसों घण्टे एकत्वबुद्धि चल रही है। बारंबार उससे भिन्न होने का प्रयत्न करे तो होता है। दूसरे का मैं कर सकता हूँ और मेरा दूसरा कर सकता है, ऐसी अनेक प्रकार की भ्रान्ति कर्ताबुद्ध की, एकत्वबुद्धि की अनेक प्रकार की (चलती है)। उसमेंसे मैं तो ज्ञायक हूँ, इसप्रकार ज्ञायक की ओर झुकना अपने हाथ की बात है। रुचि करे।
प्रश्नः- माताजी! एक प्रश्न की मुझे हमेशा उलझन रहती है कि अनुभूति के काल में जब अपनी दृष्टि वहाँ होती है, उसमें एकाकार हो, उस वक्त उसे पर का भी ज्ञान होता है या उस वक्त मात्र स्व का ही अर्थात मैं ज्ञायक चिदानंद का ही ज्ञान होता है या पर का भी साथ में (होता है)? उस वक्त उपयोग तो अन्दर है, अनुभूति के काल में, तो उस वक्त पर का ज्ञान (कैसे हो)?
समाधानः- पर की ओर उपयोग नहीं है, शुद्धात्मा की ओर उपयोग है। स्वानुभूति.. स्व की ओर उपयोग है इसलिये स्व की ओर का ज्ञान (है)। पर ओर का ज्ञान, उस ओर उपयोग नहीं है। वह सब उसे गौण हो गया, छूट गया है। पर ओर के बुद्धिपूर्वक के विकल्प छूट गये हैं। उस ओर-पर ओर उसका उपयोग ही नहीं है। अपनी स्वानुभूति में उपयोग है।
प्रश्नः- साधकदशा में दृष्टि वहाँ हो लेकिन साधकदशा में स्व और पर दोनों