Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

००४

का ज्ञान...

समाधानः- स्वानुभूति के काल में नहीं है। स्वानुभूति के काल में विकल्प छूट गया इसलिये..

प्रश्नः- नहीं, माताजी! अनुभूति के काल में नहीं और अनुभूतिमें-से बाहर आया उस वक्त..

समाधानः- उस समय तो सब ज्ञान होता है। वह तो अपनी ज्ञायक की परिणति भिन्न परिणमती है और उसके साथ उपयोग बाहर जाता है इसलिये सब ख्याल है। स्व और पर दोनों का जानता है। स्वयं को ज्ञायक को जानता है और विभाव को भी जानता है। जो-जो विकल्प आते हैं उन सब को जानता है।

प्रश्नः- जानता है, तदाकार (नहीं होता)। मात्र ज्ञायक जाननेवाला है उतना ही सम्यग्दृष्टि को रहता है।

समाधानः- एकत्वबुद्धि नहीं है, प्रतिक्षण भेदज्ञान वर्तता है।

प्रश्नः- अनुभूति काल में स्वपरप्रकाशक आत्मा का ज्ञायक का गुण है तो उस वक्त परप्रकाशक में वह मैं नहीं, उस प्रकार का ज्ञान तो वर्तता होगा न?

समाधानः- उस वक्त उसका उपयोग ही नहीं है। स्वभाव तो स्वपरप्रकाशक है ही, लेकिन वह कार्य में नहीं है, उपयोग स्वसन्मुख है और छद्मस्थ है। केवलज्ञानी को निर्मलता हो गई है इसलिये स्वपरप्रकाशक प्रत्यक्ष ज्ञान हो गया। छद्मस्थ का उपयोग है वह एक समय में एक ही ओर काम करता है। इसलिये स्वानुभूति के काल में जो स्वपरप्रकाशक उसका स्वभाव है, उस स्वभाव का नाश नहीं हुआ है। लेकिन उपयोग उसका स्वसन्मुख है। उस ज्ञान का नाश नहीं हुआ, वह है उसे। लब्ध में है, उसे शक्ति में है, नाश नहीं होत। छद्मस्थ का उपयोग एक समय में एक ओर ही होता है।

संसार का रस अन्दर एकत्वबुद्धि तोडकर अन्दर आत्मा की रुचि लगे, आत्मा की महिमा लगे तो होता है। आत्मा कोई अपूर्व वस्तु, अनुपम वस्तु है। अनन्त जन्म- मरण करते-करते मनुष्यदेह मिले उसमें यह आत्मा कोई अनुपम तत्त्व है। उसकी श्रद्धा पहले तो अन्दरसे हो। उसे पहिचानने का प्रयत्न करे तो होता है। नहीं हो तबतक विचार, वांचन, देव-गुरु-शास्त्र की महिमा (आती है), लेकिन ध्येय एक (होता है कि) मुझे आत्मा कैसे पहिचानने में आये? उसकी गहरी जिज्ञासा अन्दर करनी चाहिये। बाहर का रस न्यून हो जाय। अन्दर चैतन्य की महिमा वृद्धिगत हो तो होता है।

अनन्त कालसे जीवने बाह्य क्रिया में धर्म मान लिया है, बाहरसे धर्म मान लिया