४ है, धर्म तो अन्दर आत्मा में है। स्वभाव को पहिचाने तो धर्म होता है। अपने स्वभाव में धर्म रहा है। धर्म बाहर नहीं है। जहाँ अपना जानन स्वभाव है, वहीं उसका धर्म रहा है। उसे पहिचाने, उसकी श्रद्धा करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो मुक्ति का मार्ग प्रगट होता है।
... वह सब तो बाहर का है। अन्दर आत्मा को पहिचाने तो होता है। अन्दर आत्मा की महिमा लगे, रुचि लगे, आत्मा को पहिचाने तो होता है। अन्दरसे भेदज्ञान करे। सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र को ग्रहण करे, उसकी महिमा करे। लेकिन करना तो खुद को ही है, कोई कर नहीं देता। वह सब शुभभाव है, लेकिन जबतक आत्मा पहचाना नहीं जाये तबतक अशुभभावसे बचने के लिये शुभभाव आते हैं। देव-गुरु- शास्त्र की महिमा इत्यादि शुभभाव आते हैं। लेकिन उन सबसे आत्मा भिन्न है अन्दर। स्वयं प्रयत्न करे तो होता है। शुद्धात्मा कैसे पहिचाना जाय, ध्येय उसका होना चाहिये।
कोई किसीका कुछ कर नहीं सकता। सब के पुण्य-पाप के उदय अनुसार होता है। स्वयं भाव करे कि मैं इसका अच्छा करुं, बाकी उसके पुण्य-पाप के उदय अनुसार होता है। खुद तो भाव करके निमित्त बनता है। बाकी सामनेवाले का उदय होता है, उसके रजकण स्वतंत्र है, शरीर के, रोग के। वह खुद कुछ कर नहीं सकता, भाव करे तो निमित्त होता है। किसी भी द्रव्य का कोई कार्य कर नहीं सकता। यह क्या इसमें आता है? आत्मा का स्वरूप क्या? तत्त्व का क्या, द्रव्य-गुण-पर्याय का क्या स्वरूप है, उसका स्वाध्याय करे। पंचमकाल में जन्म लेकर महान उपकार किया है। गुरुदेवने सब को आत्मस्वरूप की पहचान करवाई। हिन्दी, गुजराती सभी को जागृत किये। महान उपकार गुरुदेव का।
प्रश्नः- उस वक्त उपयोग बाहर आया हो, धर्मात्मा को उसका वेदन जो चालू रहता है वह ज्ञान में पकड में आता है?
समाधानः- पकड में आता है, बराबर पकड में आता है। स्वानुभूतिमें-से बाहर आता है फिर उसे जो ज्ञायक की शुद्ध परिणति वर्तती है, वह शुद्ध परिणति उसे बराबर पकड में आती है।
मुमुक्षुः- वेदन पकड में आता है?
समाधानः- हाँ, वेदन पकड में आता है। नहीं पकड में आये तो वह साधकदशा ही नहीं है।
प्रश्नः- उपयोग बाहर में है न।
समाधानः- उपयोग बाहर है, लेकिन अन्दर परिणति चालू है।