१५९
करना तो स्वयंको है पुरुषार्थ करके। उसके तत्त्व विचार, भेदज्ञानका प्रयत्न, परसे एकत्वबुद्धि तोडनी, भेदज्ञान करना सब स्वयंको करना है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, ज्ञायक- -ज्ञायकका रटन सब अपनेको करना है।
मार्ग बतानेवाले गुरुदेव इस मनुष्यभवमें मिले। अनुभूति मुक्तिका मार्ग है। विकल्प तोडकर आकुलता (छोडकर)... निराकुल स्वभाव आत्मा है, ज्ञानस्वभाव आत्मा है। मैं ज्ञान हूँ, ये सब कुछ मैं नहीं हूँ। मैं तो शुभाशुभ भावसे भिन्न मैं ज्ञायक स्वभाव हूँ। शुभाशुभ भाव अपना स्वभाव नहीं है। बीचमें आते हैं, तो भी अपना स्वभाव नहीं है। तो उसको हेय जानकर ज्ञायक स्वभावका अभ्यास करना, वह करना है। अपना स्वभाव है उसको भूल गया है। तो उसको ग्रहण करना चाहिये। शास्त्रमें आता है न? वह परका वस्त्र ओढकर सो जाता है। गुरु बताते हैं कि, उठ! तेरा यह स्वभाव नहीं है। ये तो परका है। तू ग्रहण कर ले। तेरे स्वभावको लक्षण देखकर पहचान ले। जब लक्षण ख्यालमें आवे तब भेदज्ञान करता है। यह करना है, वही एक स्वानुभूतिका मार्ग है। भेदज्ञान करना वही। गुरुदेवके पास समझे हैं।
मुमुक्षुः- आपके पास सीखने मिलेगा। समाधानः- अनन्त कालसे समझ बिना परिभ्रमण हुआ है। सच्चा समझन करे तो मुक्तिका मार्ग मिले। अंतर आत्माका लक्षण पहचाने। आत्माका किस स्वभावसे है, उसे ग्रहण करे।