निमित्त बनते हैं।
जबतक स्वयं अंतर वस्तु स्वरूप जानता नहीं, तबतक शास्त्रका निमित्त होता है। परन्तु वह ख्यालमें यह रखे कि मात्र शास्त्रसे नहीं होता है, होता है अपने ज्ञानसे। शास्त्र तो निमित्त है। शास्त्र कुछ कहते नहीं कि तू जान। परन्तु जानता है स्वयंसे। शास्त्र निमित्त बनते हैं।
गुरुदेव यहाँ वाणी बरसाते थे। गुरुदेवकी वाणी प्रबल निमित्त थी। परन्तु ज्ञान तो स्वयं जाने तो हो न। गुरुकी वाणी एक सरीखी बरसती थी तो ग्रहण तो स्वयंको करना होता है। जिसकी जैसी लायकात हो उस अनुसार ग्रहण करता है। उपादान स्वयंका। निमित्त गुरुकी वाणी और आचायाके शास्त्र निमित्त बनते हैं। वह तो महान निमित्त है।
अनादि कालका अनजाना मार्ग, स्वयं कहाँ-कहाँ अकटता है, जूठे मार्गमें। कैसे मुक्ति हो? किस प्रकारसे वस्तुका स्वरूप है? स्वानुभूति कैसे हो? मालूम नहीं है। इसलिये आचाया और गुरु सब मार्ग दर्शाते हैं। वे निमित्त बनते हैं। अनादि कालसे मार्ग जाना नहीं है तो एक बार देव एवं गुरुकी वाणी सुने तो उसे अन्दरसे देशना लब्धि होती है। ग्रहण करता है स्वयंसे, परन्तु निमित्त-नैमित्तिक ऐसा सम्बन्ध है। वे निमित्त बनते हैं-गुरुकी, आचार्यकी वाणी आदि।
मुमुक्षुः- हम लोग तो शुभको भी निकाल देते हैं, फिर अपने पास साधन क्या रहा?
समाधानः- शुभ अपना स्वभाव नहीं है। वस्तु स्वभाव ऐसा है। शुभ परिणाम भी आकुलतारूप है। अन्दर संकल्प-विकल्प सब आकुलता है। वह प्रवृत्ति आत्माका मार्ग नहीं है। आत्माका परिणमन आत्मामें करना। यह शुभ परिणाम तो कृत्रिम है, अपना स्वभाव नहीं है। बीचमें आये बिना नहीं रहता। उसे श्रद्धामें जानना कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। उसे हेय मानना। क्योंकि वह अपना स्वभाव नहीं है। इसलिये उसे जानना बराबर, उसकी श्रद्धा करनी कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। परन्तु बीचमें आये बिना नहीं रहता। जब तक स्वयंमें पूर्ण लीनता नहीं हो जाती, तबतक बीचमें आते हैं।
समाधानः- .. सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो तो उसके लिये बहुत प्रयत्न करना पडता है। बाह्य क्रिया, शुभ भावसे पुण्यबन्ध होता है और पुण्यसे देवलोक मिलता है। तो उससे भवका अभाव नहीं होता। शुद्धात्माको पहचाने तो भवका अभाव होता है। शुद्धात्मा कैसे जाननेमें आवे? उसके लिये सब वांचन, विचार, तत्त्व-विचार आदि करना चाहिये। तो स्वानुभूति होती है।